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Thursday, September 22, 2011

तुम कहाँ हो ?


पता नहीं,

शायद यहीं कहीं 
नहीं- नहीं 
यहीं
आसपास ही कहीं 
क्योंकि 
तुम्हारी सुगंध ,तुम्हारी सुवास  
कलियों में चटकती है 
फूलों में बसती है 
हवाओं के संग घूमती है |

तुम्हारा अक्स ,तुम्हारी आकृति
कभी बादलों में
कभी पानी में  
खेतों में , खलिहानों में
या की मुंडेर पर बैठे पक्षी के डेनों में
हर कहीं उतरी दिखती है |

तुम्हारी उपस्थिति
भोर की नीरवता में
सांझ के सुकून में
रात की शीतलता में
विश्राम करती महसूस होती है |

तुम्हारी ऊर्जा
हवा की सरसराहट में 
पेड़ों की डोलती फुनगियों में
समन्दर की लहरों में
प्रेमी के पैरों में
घुंघरू बाँध नाचती दिखती है |

तुम्हारे होने का प्रमाण
जनमते बालक के रोने में 
अर्थी के कोने में
मिल ही जाता है |

आस- पास ही नहीं
हर कहीं
तुम हो, तुम ही तो हो |


मोहिनी चोरड़िया




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