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Saturday, December 31, 2011

सृजन-विसर्जन


सृजन तो विसर्जन है,
मन जब सूना-सूना होता है
तन्हा सा महसूस करता है
उसी समय अचानक सिर उठाती है
भावनाओं की लहरें
ज्वार की तरह
अनुप्राणित करती हैं मन को
सृजन की प्रक्रिया प्रवाहमान झरने सी
झरती है, सतत्
विचार झर-झर कर
शान्त कर देते पुनः मन को
जैसे रोज़ सुबह सूरज उगता है
भोर की लालिमा के साथ
परवान चढ़ता है मध्यान्ह के हाथ
और शाम को अवसान
पुनः अगली सुबह को आने के लिए
शान्त सब नीड़, बसेरे पक्षियों के
दिनभर की अनवरत प्रक्रिया से निवृत्त
पशु-पक्षी भी सांझ के सुकुन को महसूस करते 
व्यस्त ज़िन्दगी से दूर,
सूर्य को अर्ध्य देते लोग   
सन्ध्या वंदन करते लोग
विसर्जन कर देते अपने उदगारों  का
किसी परमसत्ता के समक्ष
अपनी आत्मा के समक्ष 
हो जाते हल्के, अपने गुरुत्व से
पुनः सृजन को ताज़गी देने के लिए
सृजन सृष्टि है
विसर्जन की कला, सृजन को,
खूबसूरत बनाती है ।

मोहिनी चोरडिया

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