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Saturday, December 31, 2011

कोख का दर्द


मेरी कोख नहीं हुई
अभी तक उजली
क्योंकि उसने दी नहीं
मुझे, अभी तक एक बेटी
कहते हैं, बेटा बाप के
बुढ़ापे की लाठी होता है ।
लगती है पुरानी बात
मैं तो देखती हूँ
बेटियों को माँ-बाप के लिए
व्यथित होते
उनका दर्द, उनका संघर्ष समझते, और
बेटों को, अपने स्वयं के परिवार
या दोस्तों के साथ समय बिताते
गुलछर्रे उड़ाते
तब लगता है, काश !
मेरी भी एक बेटी होती ।
बेटी होती है माँ के करीब
कोख से बाहर आने के बाद
भी, उसी नाल से जुड़े होने का
एहसास कराती ।
माँ से जो मिली थी,
उसी मधुरता को वापस लौटाती
माँ के मन की व्यथा
बेटी से अधिक कौन समझेगा ?
बेटी पिता के भी, हो जाती है, करीब
जब, पिता उसे ‘‘हौसलों की उड़ान’’
का स्वाद चखाता है
सपनों से अलग दुनियां
के व्यवहार सिखाता है
अन्दर की दुनियां माँ को,
बाहर की पिता को,
समर्पित कर, बेटियाँ उड़ जाती हैं
पंछियों की तरह
किसी और की दुनियां आबाद करने
चली जाती हैं ।
दूसरे कुल की रौनक बन
उसका वंश बढ़ाती हैं,
देहरी का दीप बनी रहतीं
फिर भी माँ के करीब
होती है बेटियाँ |

मोहिनी चोरडिया

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